Monday, September 14, 2009

साहित्य का लबादा उतारने को आतुर हिन्दी...

धर्मेंद्र कुमार
आज एक और हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है। हिन्दी भाषा से बेइन्तहा 'लगाव' और 'भक्तिभाव' रखने वाले लोग हिन्दी का गुणगान कर रहे हैं और उसे आगे बढ़ाने के लिए कसमें खा रहे हैं। कुछ लोगों को कल तक यह सब याद रहेगा, कुछ कतई भूल जाएंगे और कुछ अपने भाषणों को अगले वर्ष काम में लाने के लिए संभालकर रख लेंगे। यह सब पिछले कई सालों से लगातार देखने को मिल रहा है...

लेकिन, क्या वाकई इस तरह के रूदन की जरूरत अब बची है... समय के बदलाव के साथ-साथ स्थितियां भी बदली हैं... हिन्दी उतनी 'दयनीय' नहीं रही है, जितना समझा जाता है। अगर इंटरनेट पर हिन्दी की उपस्थिति देखें तो यह तेजी से बढ़ी है। इंटरनेट पर सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली शीर्ष भाषाओं में हिन्दी का नाम शामिल है।

जब देश आजाद हुआ था, बापू ने सुझाव दिया था कि भाषा को रोमन लिपि में प्रयोग में लाया जाए, जो बहुभाषी भारत की प्रकृति से मेल खाए। उनका कहना था कि इससे सामाजिक ताने-बाने को भी मजबूती मिलेगी। तब लोगों ने इसे एक कान से सुना और दूसरे से निकाल बाहर किया। वर्षों बाद इस जरूरत को, इस बाज़ार को, यूरोप और अमेरिका ने समझा... और हिन्दी सहित कई भाषाओं को अपने विभिन्न कंप्यूटर एप्लिकेशन्स में शामिल किया। तब से बाज़ार में जितनी भी वेब एप्लिकेशन्स आईं, उनमें हिन्दी एक तरह से अनिवार्य-सी हो गई है... और कम से कम इंटरनेट पर हिन्दी सामग्री में आई यकायक बाढ़ की यह बहुत बड़ी वजह है। देश में हिन्दी को पर्याप्त स्थान मिला हो या नहीं, विश्व पटल पर, इंटरनेट पर, हिन्दी स्थापित हो चुकी है। कोई कसर अगर रह गई है तो उसे 'बाज़ार' पूरी कर देगा।

अब सवाल यह है कि आखिर इस तरह की परम्परा शुरू क्यों हुई... क्यों इस तरह के वार्षिक रूदन कार्यक्रमों की ज़रूरत पड़ी... लेकिन इसका जवाब भी उन्हीं लोगों के पास है, जो इस दिन सबसे ज्यादा रोते हैं। अगर हिन्दी पत्रकारिता की बात करें तो इस पर अब तक साहित्यकारों का दबदबा रहा है। साहित्यकार अपनी क्लिष्ट भाषा में साधारणजन को अपनी बात समझाने की कोशिश करते रहे, जो उसके पल्ले ही नहीं पड़ती, और विचार का संचार ही नहीं हो पाता। अंग्रेजी सहित जिन दूसरी भाषाओं ने अपने ऊपर से साहित्यकारों का दबाव हटा दिया, ज़्यादा मुखर तरीके से लोगों से जुड़ाव रख पाईं...

लेकिन अब हिन्दी भाषा क्षेत्र में भी बदलाव आया है। पत्रकारिता जगत की हालिया कुछेक घटनाओं से यह साबित भी हुआ है कि हिन्दी भाषा अब अपने ऊपर से इस भारी आवरण को हटाकर खुली हवा में सांस लेने को आतुर हो रही है, ताकि वह आम आदमी तक आसानी से पहुंच सके। पत्रकारिता का उद्देश्य होता है कि लोगों की बात लोगों तक उनकी समझ में आ सकने वाले शब्दों में पहुंचाई जाए। वैचारिक खोखलेपन को शब्दजाल में बुनकर लोगों के सामने परोसने से उद्देश्य अधूरा ही रह जाता है। वह केवल 'स्टेटस सिंबल' बनकर रह जाता है। हिन्दी को अगर कोई नुकसान हुआ है या होना है तो वह इन्ही 'विद्वानों' की वजह से हुआ है। इन विद्वानों के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं और अंग्रेज़ी में 'हिन्दी' बोलते हैं।

साहित्य ही नहीं, पारंपरिक पत्रकारिता भी कई बार आम लोगों के गले नहीं उतरती, क्योंकि यहां भी भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग कर उसे इतना गरिष्ठ बना दिया जाता है कि वह हज़म ही नहीं होता। यही वजह है कि अब स्वयं को पत्रकार न कहलवाकर एक 'कम्युनिकेटर' कहलवाने का स्वस्थ चलन शुरू हुआ है। इस विचार के पीछे यह मानना है कि साधारण बोलचाल के शब्दों का प्रयोग कर आप उस व्यक्ति से और निकटता स्थापित कर पाते हैं, जिसकी या जिसके लिए बात कहने का प्रयास किया जा रहा है। तब आप के ऊपर से साहित्य की रक्षा का दबाव हट जाता है। ऐसे कदमों से भाषा की समृद्धि के लिए रास्ते खुलते हैं और आज इनकी ज़रूरत है।

अब देखना यह है कि इस तरीके से अगले 'हिन्दी दिवस' तक हम सब अपनी भाषा को कितना समृद्ध कर पाएंगे, उसका प्रसार कर पाएंगे...

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