Saturday, January 17, 2009

आस के सहारे भारतीय दर्शक बेचारे...!

धर्मेंद्र कुमार
'स्लमडॉग मिलियनेयर' को अतरराष्ट्रीय शीर्ष फिल्म सम्मानों में से एक गोल्डन ग्लोब के चार वर्गों में पुरस्कार मिलने के साथ ही भारतीय फिल्म जगत में खुशनुमा माहौल बन गया है। और, इसके साथ ही इस विवाद का पिटारा फिर से खुल गया कि आखिर कब तक 'भारतीय गरीबी' को इस तरह से बेचा जाता रहेगा। बात बिग बी के ब्लॉग से निकली तो सभी टीवी चैनलों और अखबारों के पन्नों तक फैल गई। अमिताभ बच्चन के ब्लॉग पर इस बहस को फिर एक शुरुआत दी गई कि आखिर कब तक भारत की 'गरीबी' को सिनेमाई अंदाज में दिखाकर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचा जाएगा।
भारतीय सिनेमा के करीब सौ साल के इतिहास में कुल जमा तीन फिल्में मदर इंडिया (1957), सलाम बॉम्बे (1988) और लगान (2001) ही ऑस्कर के किसी भी दौर के लिए नामित हुईं हैं। कथानक पर ध्यान दें। तीनों ही फिल्मों में भारत के निम्नवर्गीय संघर्ष को दिखाया गया है। इनमें गांव, गांव में रहने वाले लोग और उनकी परेशानियों का बखूबी प्रदर्शन किया गया है। हो सकता है, भारत में ग्रामीण परिवेश की अधिकता के चलते बात चल निकलती है लेकिन क्या इस तरह की फिल्में ही बॉलीवुड का प्रतिनिधित्व करती हैं। 1913 में रिलीज हुई 'राजा हरिश्चंद्र' से लेकर 2009 में रिलीज 'चांदनी चौक टू चाइना' तक की सभी फिल्मों पर नजर डालें तो क्या भारतीय फिल्मों का कथानक यही समस्याओं से जूझता ग्रामीण परिवेश है। शायद नहीं! हर विषय, हर भाव, जीवन का हर रंग बॉलीवुड की फिल्मों में आपको मिलेगा। नाच-गाने की हंसी उड़ाने में जुटे पाश्चात्य देशों के समाज में क्या बिना संगीत और गीत के रहने की कल्पना की जा सकती है। आरोप लगाया जाता है कि बॉलीवुड की फिल्में विशुद्ध रूप से व्यावसायिक होने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करती हैं। क्या यह सच है?
बॉलीवुड की इन 'तथाकथित व्यावसायिक' फिल्मों में 'आवारा', 'श्री 420', 'गाइड', 'तीसरी कसम', 'गंगा-जमना', 'नया दौर', 'हरे रामा हरे कृष्णा', 'जॉनी मेरा नाम', 'आराधना', 'आपकी कसम', 'जंजीर', 'शोले', 'बॉबी', 'डिस्को डांसर', 'कर्ज', 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे', 'डर', 'बाजीगर', 'वीर-जारा', 'ब्लैक', 'तारे जमीन पर', 'गजनी', 'मैंने प्यार किया' आदि ऐसी फिल्में हैं जिन्हें न केवल आलोचकों ने सराहा बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी इन्होंने ऐसे-ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिनके बारे में हॉलीवुड में सोचा भी नहीं जा सकता है। ये तो बात है बॉलीवुड की। अगर क्षेत्रीय भाषाओं की बात करें तो वहां की फिल्मों ने समाज पर जो असर डाला है वह तो अविस्मरणीय है। क्या कोई हॉलीवुड का एक्टर अपने को भगवान की तरह पूजे जाने के बारे में सोच सकता है? लेकिन, पाश्चात्य देश भारतीय सिनेमा के इस पहलू को देखने से इनकार कर देते हैं।
जब हॉलीवुड के कई स्वनामधन्य एक्टर भारतीय फिल्मों में काम करने के लिए लालायित नजर आ रहे हों तब क्या ऐसा हो सकता है कि करीब 500 करोड़ अमेरिकी डॉलर सालाना के बॉलीवुड फिल्म उद्योग में 'दो फिल्में' ऐसी नहीं बन पाती कि वे पश्चिमी देशों में 'सराही' जा सकें। यहां ध्यान रहे कि भारत में प्रतिवर्ष करीब 500 फिल्में बनाई जाती हैं जो कि दुनिया के किसी भी देश से अधिक हैं। सत्यजीत रे, अदूर गोपालकृष्णन, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों की फिल्में नि:संदेह उत्कृष्ट होती हैं, लेकिन क्या ये फिल्में ही भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती हैं। क्या इसी तरह के कथानकों में जीवन के भावों को दर्शाया जा सकता है? दरअसल, इस 'तथाकथित व्यावसायिक सिनेमा' में भी यह भाव मौजूद है। और इतना ही नहीं, आम जनमानस से ज्यादा अच्छे तरीके से ये फिल्में अपने को जोड़ पाती हैं। बल्कि यही वजह है कि इस सिनेमा को मुख्यधारा का सिनेमा कहा जाता है।
कुछ फिल्मी आलोचकों ने कहा है कि भारत की गरीबी को महिमामंडित करने वाली फिल्मों को पारितोषिक इसलिए मिल पाता है क्योंकि बाहरी दुनिया के लोग भारत के इसी रूप को ज्यादा जानते हैं। लेकिन क्या ये सच है? सूचना विस्तार के इस युग में इस बात पर भरोसा किया जा सकता है?
वास्तव में परेशानी यह है कि पश्चिमी देश बनी-बनाई परंपराओं से आगे नहीं निकल पा रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि महानायक अमिताभ बच्चन ने कभी कहा था कि भारतीय फिल्में किसी ऑस्कर या गोल्डन ग्लोब की मोहताज क्यों रहें? क्या हमें ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब के मोह को त्यागकर या यह कहें कि वहां लगातार खर्च की जा रह अपनी ऊर्जा को अपने इस उद्यम को और अधिक परिष्कृत करने में नहीं लगाना चाहिए। लेकिन, यदि हमें अपने सिनेमा का आकलन विदेशी पहचान के आधार पर ही करना है तो पहले इसके लिए सभी अनिवार्यताओं को जांचना होगा। उन जरूरतों को समझना होगा जिनसे भारतीय फिल्में निर्विवाद इन पुरस्कारों को हासिल कर सकें।
जाने उसके लिए भारतीय दर्शकों को अभी और कितना इंतजार करना होगा...

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