धर्मेंद्र कुमार
चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं। राजनीतिक दलों के घोषित-अघोषित मुखिया पीएम की कुर्सी 'हथियाने' की तैयारियों में जुट गए हैं। मुख्य मुकाबला मनमोहन सिंह और लाल कृष्ण आडवाणी के बीच दिख रहा है। लेकिन, कुछ छिपे हुए खिलाड़ी भी मैदान में हैं जो अपने भाग्य से 'छींका' टूटने की उम्मीद कर रहे हैं। कहीं-कहीं तो एक ही दल से दो-दो दावेदार उभर कर सामने आ रहे हैं। जिनके बस का खुद प्रधानमंत्री बनना नहीं है वे दूसरों पर 'टोपी' रख रहे हैं। उन्हें सहला रहे हैं कि आप से बेहतर कोई नहीं है। आप ही बन जाइए। इस बीच जनता क्या चाहती है, ये जानने की जरूरत शायद हमारे नेताओं को कतई नहीं है।
इन नेताओं को इनके हाल पर छोड़ते हैं... लोगों का रुख करते हैं। लोग क्या चाहते हैं...इसे जानने की कोशिश करते हैं।
लोगों के बीच प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए हो रही बहस को अगर सुना जाए तो आगाज इस मुद्दे पर होता है कि वह नौजवान हो या उम्रदराज, अनुभवी...। एक नौजवान में अगर अनथक काम करने का उत्साह होता है तो उम्रदराज शख्सियत में अपार अनुभव। ऐसा कोई नेता वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में नहीं दिख रहा जिसमें इन दोनों चीजों का संतुलित समावेश हो। अभी तक उभरे नामों में युवाओं की श्रेणी में केवल एक उम्मीदवार है जबकि बाकी के दावेदार राजनीति के क्षेत्र के जमे हुए खिलाड़ी हैं।
जब आम जनता युवक उम्मीदवार की ओर हसरत भरी नजरों से देखती है तो डर लगता है कि कहीं हश्र ब्रिटेन के विदेशमंत्री 'डेविड मिलीबैन्ड' जैसा न हो जाए। जो कुछ भी कह देने में 'पूरा' यकीन करते हैं। चाहे उसका परिणाम फिर कुछ भी हो। दुनिया में चल रही उथल-पुथल को देखते हुए जिम्मेदारी कुछ ज्यादा बढ़ गई है। नौसिखियों पर भरोसा करना इतना सहज नहीं है। वहीं दूसरी ओर, जो अनुभवी हैं वे डंबल उठाकर कसरत कर यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे 'नौजवान' हैं। बिना किसी रणनीति के कैसे 'परफॉर्म' करना है, कोई पता नहीं। क्या कार्यक्रम है अगले पांच सालों के लिए, कोई अता-पता नहीं। बस कोशिश यह है कि कैसे दूसरे प्रतिद्वंद्वी को 'नीचा' दिखाना है ताकि जनता की नजरों में 'ऊंचे' हो जाएं।
लोगों को हैरानी तो तब होती है जब एक ही दल में एक अनुभवी और एक नौजवान उम्मीदवार के बीच प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलती है। जनता अगर उस पार्टी को चाहे तो उसे उन दावेदारों में से एक को चुनना है। आम लोग यहां बंटे नजर आते हैं। लोगों में इस बात को लेकर भ्रम हो सकता है कि नए उत्साह को तरजीह दें या पुराने अनुभव को।
दूसरा मुद्दा जिस पर लोग राय बना सकते हैं वह यह है कि पिछले साल से मंदी की भीषण मार झेल रहे देश को कैसे आगे आने वाले दौर में बचाएं। वर्तमान प्रधानमंत्री का एक अच्छा अर्थशास्त्री होना उनके पक्ष में जा सकता है। लेकिन, उन्हीं की पार्टी के भीतर एक पूरा तबका नहीं चाहता कि वह दोबारा प्रधानमंत्री बनें।
इनके अलावा, दूसरे जो 'छिपे' दावेदार हैं, उनकी कहानी भी बड़ी अजब है। ये लोग राजनीतिक समीकरण बनाने में जुटे हुए हैं। किसी का ध्यान लोकसभा में चुनकर आने वाले सांसदों की संख्या पर है तो किसी का सोशल इंजीनियरिंग पर। अगले पांच साल के लिए कार्यक्रम इनके पास भी नहीं है। ये कार्यक्रम तब बनेगा जब कुर्सी मिल जाएगी। लेकिन, अच्छी बात यह है कि इस श्रेणी के नेताओं पर लोगों की राय इस बार कुछ अच्छी नहीं है। अभी तक उभरे नामों में से तीन नाम इसी श्रेणी के हैं। हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण में ये बात बिल्कुल साफ होकर सामने आई। अगर इस सर्वे पर विश्वास करें तो लोगों ने इन्हें एकदम से नकारा है।
अब जरूरत यह है कि लोग एक ऐसा आदमी इस पद के लिए ढूंढें जिसके पास नौजवानों जैसा उत्साह हो, उम्र के साथ मिला अनुभव हो तथा वर्तमान विश्व में छाई दुश्वारियों से लड़ने का माद्दा हो...है कोई...देखें जरा अपने आस-पास!
चलते-चलते :
अभी, मुझे एक मेल मिला है जिसके अनुसार पत्रकार जरनैल सिंह के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता उछाले जाने से नाराज एक संगठन आगरा में 'जूता फेंको प्रतियोगिता' का आयोजन करने पर विचार कर रहा है। 'ऑल इंडिया जूता फेंको फेडरेशन' नाम के इस संगठन द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धियों को 'रिजेक्टेड' जूते उपलब्ध कराए जाएंगे। इन जूतों को वे 'भारतीय राजनीतिक जंगल' के जानवरों' के कट-आउट्स पर मारेंगे। जो प्रतिस्पर्धी सही निशाना लगाएगा उसे एक जोड़ी जूते पुरस्कार में मिलेंगे। आयोजकों का कहना है कि इससे मंदी के मारे उन जूता निर्यातकों को भी मदद मिलेगी जिनके ऑर्डर 'रिजेक्ट' हो रहे हैं। प्रतिस्पर्धियों को उपलब्ध कराए जाने वाले ये 'रिजेक्टेड' जूते इन्हीं कंपनियों के होंगे। संगठन ने सभी लोगों से अपने जूते भेजने का आग्रह भी किया है।
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