Saturday, July 04, 2009

जारी है इन्सान की कुदरत से लड़ाई...

धर्मेंद्र कुमार
समलैंगिकता को वैध घोषित किए जाने पर शोर-शराबा तो होना ही था। सो हो रहा है...लेकिन इसके पक्ष में या विपक्ष में बोलने से

पहले हमें इसे विशेष संदर्भों में देखने की जरूरत है।

समलैंगिकता की स्थिति को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला परिस्थितिजन्य, जिसमें यह तब विकसित होती है जब पुरुष या महिला अपने विपरीत लिंगी साथी से दूर रहते हैं और उनका झुकाव अपने समलिंगी मित्र के साथ हो सकता है। अक्सर सेना या लड़के-लड़कियों के हॉस्टलों में इसकी संभावना ज्यादा रहती है। दूसरा, वह जो उस परिस्थिति में विकसित होता है जब कोई व्यक्तित्व विपरीत सेक्स वाले व्यक्तित्व का साथ पसंद नहीं करता है। इसकी वजह कोई मनोवैज्ञानिक या कोई असामान्य व्यवहार हो सकता है।

तथा, तीसरा वर्ग उन आधुनिक लोगों का है जो सेक्स के मामले में भी 'प्रयोगधर्मी' हैं। चाहे खाने-पीने की बात हो, या संबंधों की...

यह वर्ग प्रयोग को प्राथमिकता देता है। और, शायद यह वर्ग संख्या में सबसे अधिक है।

दरअसल समस्या पहले व दूसरे वर्ग वाले लोगों की है। इस वर्ग के लोगों के बीच पनपे संबंधों को हेय दृष्टि से देखने का रिवाज है। और उन्हीं को उनका हक दिलाने की मांग की जाती है ताकि समाज में उन्हें अपमान का सामना न करना पड़े। जहां तक तीसरे वर्ग का सवाल है तो उसकी वजहें दूसरी हैं। उनके लिए यह मात्र 'मनोरंजन' का एक विषय है।

वास्तव में सेक्स का मतलब बदल जाने से ऐसा हुआ है। इस तरह के लोग सेक्स को 'एन्जॉय' करने लगे हैं। पूर्व में सेक्स का उद्देश्य जहां एक परिवार का निर्माण करना था...उसकी संभवत: अब जरूरत ही नहीं बची है।

इसके चलते सेक्स अब केवल 'मौज-मस्ती' का साधन बन कर रह गया है। तो इस तरह का विचलन होना अवश्यंभावी है। आप कह सकते हैं कि शायद हम उस युग में हैं जिसमें किसी भी समय, कहीं भी, किसी के साथ सेक्स किया जा सकता है। सेक्स अब एक ऐसी भौतिक गतिविधि बन चुका है जिसमें शायद भावनाओं के लिए जगह कम ही है। अपने साथी से विलगाव, जरूरत से ज्यादा व्यस्तताएं और दूसरे तनाव अब इसकी वजह हैं।

सरकार खुद जनसंख्या में कमी लाने के लिए परिवार नियोजन और दूसरी चीजों को प्रोत्साहित करती है। मजे की बात यह है कि यह भी सच ही है कि परिवार नियोजन और गर्भनिरोधक साधनों से अनचाहे गर्भ ठहरने का डर लगभग दूर हो ही चुका है। बड़े-बड़े कुनबे एक छोटे से फ्लैट में रह सकने में सक्षम छोटे-छोटे घरों में बदल रहे हैं।

बदलते दौर के साथ इसे हमें स्वीकारना होगा। कुछ लोगों को यह पसंद आएगा कुछ को नहीं। लेकिन लोकतंत्र का दौर है और हर व्यक्ति को अपनी तरह से जीवन जीने का अधिकार है। इस संबंध में अदालत का फैसला केवल ऐसे लोगों को उनका जरूरी हक दिलवाने की कोशिश मात्र है। लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं। लेकिन ये विरोध तर्क के बजाय धर्म पर ज्यादा आधारित है। लगभग सभी धर्मों के लोग इसके विरोध के मुद्दे पर एकमत हैं।

जहां तक प्रकृति का सवाल है तो वह इसके विरुद्ध ही दिखती प्रतीत होती है। जानवरों के व्यवहार को गौर से देखने पर इसे महसूस किया जा सकता है। क्योंकि उन्हें विरासत में कोई सभ्यता या शिक्षा नहीं मिली होती है। वे प्राकृतिक रूप से व्यवहार करते हैं।

इन सबके मद्देनजर जरूरत है इस मसले को समझने की और थोड़ा ज्यादा संवेदनशील होने की...क्योंकि यह लड़ाई मानव की प्रकृति से चल रही लड़ाई का एक विस्तारभर है। परिणाम जो भी हो...

No comments:

All Rights Reserved With Mediabharti Web Solutions. Powered by Blogger.