Monday, May 30, 2011

अब नहीं दिखते ठंडाई के ठेले

धर्मेंद्र कुमार
फास्ट फूड एवं इंस्टैंट पेयों के तेजी से चल निकले चलन से परंपरागत पेयों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। इन पेयों में कई तरह के शरबत एवं ठंडाइयां आदि शामिल हैं... तो चर्चा करते हैं ठंडाई की... जिसके ठेले अब दिखाई नहीं देते हैं।

अगर परिभाषा की बात की जाए तो मानक हिंदी कोष व हिंदी शब्द सागर के अनुसार ठंडाई वह दवा या मसाला है जिससे शरीर व मस्तिष्क को शीतलता महसूस होती है। यह प्राय: गर्मी के दिनों में घोटकर अवं घोलकर शरबत के रूप में बनाई और पी जाती है।

ठंडाई दूध, बादाम, पिश्ते, काली मिर्च, सौंफ, इलायची, गुलाब की पंखुड़ियां, मुनक्का, खसखस एवं ककड़ी, खरबूज और तरबूज के बीजों का मिश्रण होती है। मिठास लाने के लिए इसमें एक तरह की कच्ची खांड़ 'तगार' मिलाई जाती है।

आयुर्वेद संहिता में इसे दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसमें मौजूद ब्राह्मी, कासनी एवं मुलैठी आदि जड़ी-बूटियां मस्तिष्क एवं गले को शीतलता प्रदान करती हैं। ठंडाई में प्रयुक्त बादाम और पिश्ते जहां मेधाशक्ति एवं प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं वहीं हृदय के लिए भी यह गुणकारी होते हैं। काली मिर्च, मुनक्का, गुलाब और इलायची गले एवं आतों को साफ करती है और कफ को नियंत्रित रखती है। इसके अलावा गुलाब की पंखुड़ियां व काली मिर्च आंखों की आवर्धन क्षमता को बढ़ाती हैं। मुलैठी व ब्राह्मी मस्तिष्क के लिए अत्यंत लाभकारी होती हैं। सौंफ एवं खरबूज, तरबूज व ककड़ी के बीज गुर्दे व मूत्राशय के रोगों में अत्यंत लाभ पहुंचाते हैं। पुराने समय में और कहीं-कहीं अब भी ठंडाई का प्रयोग अखाड़ों में पहलवानों द्वारा कसरत करने के बाद शीतलता प्रदान करने के लिए किया जाता रहा है। आजकल ठंडाई का स्थान कई तरह के कोला पेयों ने ले लिया है। इनका प्रयोग करना युवाओं के लिए स्टेटस सिंबल सा बन गया है। इन प्रचलित पेयों में मौजूद कई प्रकार के कारक हमें अवर्णनीय नुकसान पहुंचाते हैं। ये पेय हमें तत्कालीन उत्तेजना तो प्रदान करते हैं लेकिन यह उत्तेजना क्षणिक होती है जबकि इनके नुकसान या दुष्प्रभाव दीर्घकालिक होते हैं।

ठंडाई के सेवन से उनमें उपस्थित संघटकों के कारण तन व मन को अपार शीतलता एवं स्फूर्ति और शक्ति मिलती है तथा भीषण गर्मी और धूप से पैदा होने वाले दुष्प्रभाव दूर होते हैं। पौराणिक उल्लेखों के इनुसार समुद्र मंथन के समय जो 14 रत्न विभूतियां निकलीं उनमें हलाहल विष और वैद्य धन्वंतरि भी थे। विश्व को हलाहल विष की ज्वालाओं से खाक होने से बचाने के लिए शिव ने हलाहल पान कर कंठ में धारण कर लिया ताकि हृदय में स्थित अपने आराध्य हरि (श्री विष्णु) को विष दग्ध न करे। अब हलाहल शिव के कंठ में होने से चिंतित देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों और धन्वंतरि ने विचार-विमर्श कर उन्हें धतूरा सेवन कराकर चिकित्सा के इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि विष ही विष को काटता है। साथ ही भांग मिश्रित ठंडाई निरंतर सेवन कराई। शिव भक्ति में शिव को ठंडाई अर्पित करना पुण्य कारक माना जाता है। शरीरस्थ विषों को शांत करने में ठंडाई सहायक होती है, ऐसा आयुर्वेद विशारद कहते हैं।

आजकल बाजार में कई तरह की डिब्बाबंद ठंडाइयां उपलब्ध हैं लेकिन ये ब्रांड इंस्टैंट पेयों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं। इन ब्रांडों में मिश्रांबु, वैद्यनाथ एवं हल्दीराम आदि कंपनियां शामिल हैं।

शुरुआती समय के कई प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान अब मात्र एक तख्त तक सिमटकर किसी भी तरह इस परंपरा को बचाने के लिए संघर्षरत हैं क्योंकि मौजूदा पीढ़ी कोला पेय और चाय, कॉफी की दीवानी है। ठंडाई उन्हें बीते वक्त की चीज लगती है।

अस्सी वर्षीय अजुद्दी चौधरी ठंडाई बनाने का काम करीब 11 साल पहले छोड़ चुके हैं। वह अब मात्र शादी-विवाहों के अवसरों पर ही अपने हुनर का इस्तेमाल कर किसी प्रकार जीविका चला रहे हैं। जब उनसे ठंडाई की घटती लोकप्रियता के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि इसके लिए पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण ज्यादा जिम्मेदार है। चैनल संस्कृति में ठंडाई जैसी परंपराएं जीवित रखना बहुत ही दुष्कर कार्य है। आजकल हरेक व्यक्ति तुरत-फुरत अपनी प्यास बुझाना चाहता है और इसके लिए विभिन्न कोला और कोल्ड ड्रिंक्स बाजार में उपलब्ध हैं।

दूसरी ओर, उन्होंने इसके लिए ठंडाई बनाने में किए जाने वाले समझौतों को भी दोषी ठहराया। उन्होंने बताया कि ठंडाई में बादाम के बजाय पेठे के बीज पीसकर डाले जाते हैं। मीठा करने के लिए पहले जो तगार मिलाया जाता था उसके स्थान पर अब चीनी मिला दी जाती है। चीनी से इसमें वह प्रभाव और स्वाद नहीं आ पाता है जिसके लिए यह जानी जाती है। अजुद्दी चौधरी की आगे की पीढ़ियों को इस व्यवसाय में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनके पुत्र का तंबाकू का व्यवसाय है।

यद्यपि फास्ट फूड और कोला के इस दौर में शहरों में लोग ठंडाई सेवन को लोग भूलते जा रहे हैं लेकिन गांव, कस्बों एवं छोटे शहरों के परंपरागत इलाकों में अपने अद्भुत स्वाद एवं सीरत तथा औषधीय गुणों के कारण प्राचीन भारतीय पेय ठंडाई को भुलाना असंभव होगा क्योंकि जो एक बार इसे पी लेता है वह इसका मुरीद हो जाता है। होली तो ठंडाई के बिना मन ही नहीं सकती।

किस्से-कहानियों, फिल्मों और फिल्मी गानों में भी ठंडाई के गुण गाए जाते हैं। काव्य में तो ठंडाई के विशद विवरण मिलते हैं। यही कारण है कि कोला और कॉफी के दौर में भी ठंडाई अपना अनोखा स्वाद लिए किसी भी तरह डटी हुई है।

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