Friday, March 01, 2013

साल दर साल बजट कितना जरूरी...

धर्मेंद्र कुमार
धर्मेंद्र कुमार

हर साल की तरह एक और बजट आ गया। एक मीडियाकर्मी होने के नाते पिछले कई सालों से लगातार मैं इस 'घटना' का एक दर्शक बनता आया हूं। हां... इस वार्षिक आयोजन से पहले अर्थव्यवस्था में नौ फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले रेल बजट का अलग से प्रस्तुतिकरण भी संसद के पटल पर 'रिहर्सल' के रूप में किया जाता है। अगर रेल बजट को आम बजट का 'ट्रेलर' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पिछले कुछ सालों से तो यह भी पता करना मुश्किल होता जा रहा है कि यह एक आर्थिक आयोजन है या राजनीतिक...।

देश में विकास की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए पंचवर्षीय योजना का खाका पेश करने का विधान बनाया गया है। आम बजट में सरकार के खर्चे और आमदनी का हिसाब-किताब रखना होता है लेकिन नेताओं ने इसे टैक्स में छूट या बढ़ोतरी करने का सालाना 'उत्सव' बना दिया है। 'नया सूट' पहनकर संसद में रेल और वित्त मंत्री इसके अगुवा बनते हैं।

पिछले कई अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि बजट में किए गए प्रावधानों से ज्यादा फायदा बड़े उद्योगपतियों या कहें कि अमीरों को ही होता है। निचले और मध्यम वर्ग को कमोबेश अपना खर्चा बढ़ता हुआ ही नजर आता है। इस बार हालांकि एक करोड़ से ज्यादा आय वाले लोगों पर 10 फीसदी का अतिरिक्त प्रभार लगाया गया है लेकिन बीते कई सालों में मुझे याद नहीं आता कि ऐसा कोई प्रावधान आया हो। इसके लिए चिदंबरम बधाई के पात्र हैं। हालांकि, इसके पीछे मौजूदा सरकार का आखिरी बजट और देश के कई हिस्सों से उठी ऐसी मांग ज्यादा रही। अन्यथा टाटा, बिड़ला और अंबानी भी 30 फीसदी की दर पर ही कर चुका रहे थे।

हर बार तत्कालीन सरकार अपने दल और क्षेत्र से जुड़े लोगों का ही फायदा कराती नजर आई है। बल्कि एक तरह से अब इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी कर लिया गया है। नेता यह तर्क भी देते दिखने लगे हैं कि अगर रेल मंत्री और वित्त मंत्री अपने क्षेत्र में विशेष योजनाओं को ले जाते हैं तो क्या बुराई है...?

नए तरह के कर प्रावधानों के बाद 'निकल' जाने के रास्ते भी साथ ही साथ सुझा दिए जाते हैं। उच्च वर्ग के पास पूरे संसाधन होते हैं इन प्रावधानों से फायदा उठाने के... अगर कोई पिसता है तो वह है निम्न और मध्यम वर्ग। इस आर्थिक-राजनीतिक गठजोड़ का तोड़ फिलहाल आम जन के पास नजर नहीं आता।

अब सवाल यह है कि क्या वाकई इस तरह के सालानों बजटों को पेश करने की कोई जरूरत है... क्या पंचवर्षीय योजना के खाके में ही इसे समाहित नहीं कर दिया जाना चाहिए और बजट को एक बैलेंस शीट के रूप में ही पेश नहीं कर दिया जाना चाहिए... जिससे नेताओं को सस्ती राजनीति में पड़ने का एक और मौका न मिले। या... अगर बजट पेश करना इतना ही जरूरी है तो क्यों न हर विभाग या सेक्टर का अलग-अलग बजट पेश किया जाए और हर नेता को 'नया सूट' पहनने का मौका दिया जाए...।

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