धर्मेंद्र कुमार
'सही' क्या है और 'गलत' क्या है... यह फैसला कौन करे... ? मेरे खयाल से 'सत्य' तो सार्वभौमिक है... जबकि 'सही' और 'गलत' की परिभाषा हम अपने हिसाब से गढ़ लेते हैं...।
मेरी नजर में जो 'सही' है वह आपकी नजर में 'गलत' हो सकता है लेकिन वास्तव में 'सत्य' शायद कुछ और ही होता है... 'सत्य' को कोई फर्क नहीं पड़ता यदि मैं उसे बोलूं या नहीं बोलूं..., लेकिन किसी 'असत्य' को मेरे द्वारा 'सही' कह देने भर से वस्तुस्थिति बदल जाती है...। उसके परिणाम बदल जाते हैं...। यह ठीक वैसे ही है जैसे बचपन में कहानी सुनाते हैं बाबा लोग... एक शिकारी ने गाय के भागकर जाने का मार्ग पूछा तो एक ग्रामीण ने 'सत्य' बोल दिया और शिकारी ने जाकर उसका वध कर दिया जबकि इसी तरह एक अन्य परिस्थिति में दूसरे किसान ने उसे भ्रमित कर 'सही' बोला और कहा कि 'गाय इधर नहीं गई है...' इससे गाय की जान बच गई...।
ये बड़ा गड्ड-मड्ड है... भगवान श्रीकृष्ण ने 'सत्य' के साथ कई प्रयोग किए है... 'सही' और 'गलत' की कई परिभाषाएं दी हैं... हम लोग अपने 'मतलब' से चुन लेते हैं... कृष्ण कौन से कम थे... उन्होंने भी कमोबेश यही किया... तो हम क्या चीज हैं...।
बेहतर तो यह है कि हम यह सोचकर फैसला करें हमारे किस निर्णय से देश को, समाज को और वहां रहने वाले जीव-जंतुओं को फायदा हो सकता है। कई बार असली सत्य के चक्कर में एक बड़े समुदाय के साथ अन्याय हो जाता है... या कह सकते हैं कि तर्क के अभाव में अनुचित फैसला हो जाने की आशंका बन जाती है तो उसके दुष्परिणाम अंतत: सबको झेलने होते हैं।
रामायण काल में राजा हरिश्चंद्र का सत्य था... जिसके चलते उनके परिवार ने खूब कष्ट झेले... और मानक बने...। महाभारत में भीष्म का ‘सत्य’ था, द्रोणाचार्य का ‘सत्य’ था, कर्ण का भी अपना ‘सत्य’ था... लेकिन उनके 'सत्य' पालन से क्या परिणाम सामने आए, वे जगजाहिर हैं।
तो फिर करें क्या...? कुछ मत करो..., शरीर को शिथिल छोड़ो और यह सोचने की कोशिश हो कि आज जो हम फैसला कर रहे हैं उसके दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं... अगर सही सोच पाए तो वही ‘सही’ होगा... और सत्य की परिभाषा में ‘फिट’ बैठ सकता है। अन्यथा अपने भाग्य को कोसिए और सत्य की तलाश करिए...।
'सही' क्या है और 'गलत' क्या है... यह फैसला कौन करे... ? मेरे खयाल से 'सत्य' तो सार्वभौमिक है... जबकि 'सही' और 'गलत' की परिभाषा हम अपने हिसाब से गढ़ लेते हैं...।
मेरी नजर में जो 'सही' है वह आपकी नजर में 'गलत' हो सकता है लेकिन वास्तव में 'सत्य' शायद कुछ और ही होता है... 'सत्य' को कोई फर्क नहीं पड़ता यदि मैं उसे बोलूं या नहीं बोलूं..., लेकिन किसी 'असत्य' को मेरे द्वारा 'सही' कह देने भर से वस्तुस्थिति बदल जाती है...। उसके परिणाम बदल जाते हैं...। यह ठीक वैसे ही है जैसे बचपन में कहानी सुनाते हैं बाबा लोग... एक शिकारी ने गाय के भागकर जाने का मार्ग पूछा तो एक ग्रामीण ने 'सत्य' बोल दिया और शिकारी ने जाकर उसका वध कर दिया जबकि इसी तरह एक अन्य परिस्थिति में दूसरे किसान ने उसे भ्रमित कर 'सही' बोला और कहा कि 'गाय इधर नहीं गई है...' इससे गाय की जान बच गई...।
ये बड़ा गड्ड-मड्ड है... भगवान श्रीकृष्ण ने 'सत्य' के साथ कई प्रयोग किए है... 'सही' और 'गलत' की कई परिभाषाएं दी हैं... हम लोग अपने 'मतलब' से चुन लेते हैं... कृष्ण कौन से कम थे... उन्होंने भी कमोबेश यही किया... तो हम क्या चीज हैं...।
बेहतर तो यह है कि हम यह सोचकर फैसला करें हमारे किस निर्णय से देश को, समाज को और वहां रहने वाले जीव-जंतुओं को फायदा हो सकता है। कई बार असली सत्य के चक्कर में एक बड़े समुदाय के साथ अन्याय हो जाता है... या कह सकते हैं कि तर्क के अभाव में अनुचित फैसला हो जाने की आशंका बन जाती है तो उसके दुष्परिणाम अंतत: सबको झेलने होते हैं।
रामायण काल में राजा हरिश्चंद्र का सत्य था... जिसके चलते उनके परिवार ने खूब कष्ट झेले... और मानक बने...। महाभारत में भीष्म का ‘सत्य’ था, द्रोणाचार्य का ‘सत्य’ था, कर्ण का भी अपना ‘सत्य’ था... लेकिन उनके 'सत्य' पालन से क्या परिणाम सामने आए, वे जगजाहिर हैं।
तो फिर करें क्या...? कुछ मत करो..., शरीर को शिथिल छोड़ो और यह सोचने की कोशिश हो कि आज जो हम फैसला कर रहे हैं उसके दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं... अगर सही सोच पाए तो वही ‘सही’ होगा... और सत्य की परिभाषा में ‘फिट’ बैठ सकता है। अन्यथा अपने भाग्य को कोसिए और सत्य की तलाश करिए...।
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