Friday, November 21, 2008

बदले-बदले से 'सरकार' नजर आते हैं...

धर्मेंद्र कुमार
हाल ही में सुर्खियां बनीं इन तीन खबरों पर नजर डालिए। पहली- अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने पाया कि अफगानिस्तान की राजधानी काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हुए हमले में आईएसआई का हाथ है। बकौल उनके, इसके पुख्ता प्रमाण उनके पास मौजूद हैं। दूसरी-बुश का बयान... आखिर ये आईएसआई किसका हुक्म मानती है? तीसरी-सार्क सम्मेलन में भाग लेने पहुंचे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी ने भारतीय दूतावास पर हुए हमले में आईएसआई की भूमिका की स्वतंत्र जांच कराने के लिए आश्वस्त किया।

इन खबरों को ध्यान से देखें तो, ये तीनों ही खबरें संभवत: अब तक के कूटनीतिक इतिहास में पहली बार एक साथ सुनने को मिली हैं। जरा गौर फरमाइए! अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को 'पहली बार' एहसास हुआ कि आतंकी हमलों में आईएसआई का 'हाथ' है। इसका 'सबूत' भी उन्हें मिल गया है। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का 'परिचय' भी आईएसआई से हो गया। और, सबसे खास बात यह रही कि किसी पाकिस्तानी हुक्मरान ने आईएसआई की 'किसी' हरकत की स्वतंत्र जांच कराने की मंजूरी भी दे दी।

आखिर क्या राज है भारत के इस अचानक बढ़े 'प्रभाव' का? क्या वजह है कि यकायक भारत की आतंक के खिलाफ लड़ाई को लेकर अमेरिका भी चिंतित हो गया है? चलिए, अब इन खबरों के तारों को आपस में जोड़ते हैं। संभवत: क्या हुआ होगा, जो हमें ये खबरें नसीब हुईं। पिछले हफ्ते, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने सर्वसम्मति से सुरक्षा मानक समझौते को मंजूरी दे कर अंतरराष्ट्रीय परमाणु कारोबार में शिरकत की दिशा में भारत की राह की एक बड़ी बाधा दूर कर दी। अमेरिका से इसकी प्रतिक्रिया कुछ यूं मिली...भारत में अमेरिकी राजदूत डेविड सी मल्फोर्ड ने एक बयान में कहा, "हम परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत को विशेष छूट और अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी दिलाने के लिए कड़ी मेहनत करेंगे।"

क्या यह नहीं लग रहा है कि अमेरिका के लिए भारत अचानक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इसका श्रेय हम अपने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को दें या परमाणु करार के लिए उनकी की गई 'अपार' मेहनत को। सब कुछ पैसे का खेल है! अरबों रुपये की डील के चलते अब अमेरिका को भारत की 'चिंता' करने का वक्त मिला है। इस चिंता के चलते 'पुराने दोस्त' पाकिस्तान को भी थोड़ा-बहुत कसा जा सकता है। संभवत: डील का यह एक 'पहला' फायदा हुआ है। लेकिन, क्या परमाणु करार इसकी कीमत है? अगर सही मायने में, यह कीमत है तो कहीं ये ज्यादा तो नहीं। कहीं वामदलों सहित विपक्ष की आशंकाएं सही साबित होने तो नहीं जा रही हैं? भविष्य में क्या हो सकता है? कितना समय लगेगा हमें एक और 'पुराना दोस्त' बनने में? कई सवाल उभरे हैं एक साथ। हमें समय रहते ध्यान देना जरूरी है।

अमेरिका के पुराने कूटनीतिक इतिहास को देखें, तो वहां चाहे डेमोक्रेटिक सत्ता में रहें या रिपब्लिक, विदेश नीति पर कोई खास अंतर नहीं पड़ता। निहित हितों के चलते कोई भी अमेरिका का शिकार बन सकता है। अब चाहे वह इराक हो, अफगानिस्तान हो या फिर कोई और। इसी क्रम में ईरान को भी देखा जा सकता है।

भारत के संदर्भ में देखें, तो पाकिस्तान, अमेरिका का बहुत पुराना दोस्त रहा है। अमेरिका-पाकिस्तान की यह 'बेमेल' दोस्ती दक्षिण एशिया में उसके हितों को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण है। आतंकी गतिविधियों पर नजर और नियंत्रण रखने की आड़ में जहां उसने इस क्षेत्र में अपने सैन्य आधार मजबूत किए हैं, वहीं दक्षिण एशियाई देशों पर कूटनीतिक दबाव बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। भौगोलिक दृष्टि के लिहाज से पहले पाकिस्तान और अब अफगानिस्तान भी, अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। शायद एक कारण यह भी है कि अमेरिका इस क्षेत्र से चाहते हुए भी सैन्य बलों में कटौती नहीं कर पा रहा है।

अभी, एक खबर के अनुसार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह द्वारा बनाए गए ड्राफ्ट में भी भारत द्वारा भविष्य में किए जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर चुप्पी साध ली गई है। यही नहीं, इस ड्राफ्ट के अनुसार भारत को परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने के लिए भी कहा जा सकता है। हालांकि, भारत ने अमेरिका को स्पष्ट तरीके से कह दिया है कि वह इसे स्वीकार नहीं करेगा। कुछ ऐसी ही 'उम्मीदें' परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के दूसरे देशों की भी हैं। और, अमेरिका ने भारत को इस बारे में आगाह भी किया है कि वह सदस्य देशों की उन 'उम्मीदों' को भी ड्राफ्ट में शामिल कर सकता है। हालांकि ये भरोसा भी दिलाने की कोशिश की है कि ये सब 'उम्मीदें' हैं, न कि 'शर्तें'... लेकिन, भारत को आसन्न परेशानियों को देखते हुए बिना हड़बड़ी के फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है। अन्यथा आगे चलकर हम अनचाही मुसीबतों के जाल में फंसते चले जाएंगे।

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