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'सूरत में एक के बाद एक 18 धमाके, 100 से ज्यादा मरे'... न... न... चौंकिए नहीं... फिलहाल हम इस खबर से बाल-बाल बच गए हैं। मंगलवार को गुजरात पुलिस ने पूरी सक्रियता दिखाई और सूरत शहर में एक के बाद एक 18 बम ढूंढ निकाले। पुलिस ने शहर का हर कोना, हर पेड़, हर गड्ढा और हर लावारिस पड़ा टिफिन छान मारा, और बम ढूंढ़ लिए। अभी कुछ और बम भी मिल सकते हैं...
गौर कीजिए! यह सक्रियता तीन-चार दिन पहले, या कहिए हर रोज दिखाई जाती या यूं कहें कि यह 'रेड अलर्ट' रोज रहे तो क्या बेंगलुरु और अहमदाबाद जैसी घटनाओं से बचा नहीं जा सकता था! उजड़ गए 100 से ज्यादा परिवारों को बचाया नहीं जा सकता था! किसका दोष है यह... प्रशासन का, पुलिस का, नेताओं का या कोई और ही है इसका जिम्मेदार! समझ नहीं आता, किसके सिर थोपें इसका दोष! जब कोई घटना घट जाती है तो हममें न जाने कहां से यह अतिरिक्त फुर्ती आ जाती है। हमारे पुलिसकर्मी शारीरिक रूप से पूरी तरह फिट हो जाते हैं! अधिकारियों द्वारा पर्याप्त संख्या में पुलिसकर्मियों का न होने का दावा न जाने कहां फुर्र हो जाता है! एक पल में सब कुछ ठीक-ठाक, कसी हुई व्यवस्था हम आम नागरिकों के सामने दिखने लगती है। यही नहीं, प्रशासन की आम जनता से भी और ज्यादा सहयोगी होने की उम्मीद भी बलवती हो जाती है।
सरकार से अगर कोई उम्मीद करें, तो अब 'जांच' होगी। सभी राजनीतिक दलों के नेता एक-दूसरे को दोषी ठहराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। अपने 'कपड़े' और 'जूते' बचाते हुए विस्फोट प्रभावितों से मिलने जाने का दौर शुरू होगा। कुछ नेताओं ने अपने आकाओं की 'शह' पर यह अभियान शुरू भी कर दिया है। सत्तापक्ष सभी सुविधाएं मुहैया कराने का दावा करेगा तो विपक्ष प्रभावितों की ठीक से देखभाल न करने का आरोप लगाएगा। देश की जनता को यह पूरी 'प्रक्रिया' रट गई है, लेकिन हमारे नेताओं को 'अपडेट' होने में न जाने कितना वक्त लगेगा।
अब बात हमारी खुफिया एजेंसियों की 'सतर्कता' की। अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट बेंगलुरु बम धमाकों के अगले ही दिन हुए। बेंगलुरु धमाकों के बाद पूरे देश में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया था। फिर कैसे अहमदाबाद में एक-दो नहीं, 18 बम जगह-जगह रख दिए गए? उस समय क्या हमारी जांच एजेंसियां कान में तेल डालकर सो रही थीं। इतने सारे बम धमाकों के पीछे कोई एक-दो आदमी तो होंगे नहीं। फिर उनकी कारगुजारियों से ये एजेंसियां कैसे बेखबर रह गईं? 2002 के दंगों के बाद से ही गुजरात और नरेंद्र मोदी दोनों आतंकवादियों के निशाने पर हैं, इसके बावजूद खुफिया एजेंसियों की यह चूक कई बड़े सवाल खड़े करती है। देश में आतंकवादी खतरों से निपटने के लिए हमें सबसे पहले इन एजेंसियों को ही जवाबदेह बनाना पड़ेगा... और इसकी शुरुआत अब हो ही जानी चाहिए, क्योंकि देरी का मतलब है किसी और शहर में धमाकों की खबर सुनने को हम तैयार रहें...
बेंगलुरु, अहमदाबाद या सूरत ही नहीं, देश के हर शहर, हर जगह लगभग यही नजारा है। अभी दो दिन पहले, पड़ोस में एक कार के चोरी हो जाने के बाद रातोंरात कालोनी के बाहर गेट लग गया। रात को ऑफिस से घर लौटे तो पुलिस ने अपनी जीप पीछे लगा दी। घर के सामने गाड़ी से उतरते ही सवालों की झड़ी भी लगा दी। कहां से आ रहे हो? कौन हो? किसकी गाड़ी है? इतनी रात गए कौन सा ऑफिस खुलता है? पूरा परिचय और रात में घर से बाहर होने की वजह बता देने के बाद घर में घुस सका। कोई एतराज नहीं, इस पूछताछ से! लेकिन काश! यह चुस्ती-फुर्ती रोज हो तो कैसा रहे! फिर, न शायद बम फटेंगे, न मोहल्ले में चोरियां होंगी... और तब शायद पुलिस की पूछताछ भी प्यारी लगेगी।
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