Monday, February 08, 2010

बेटा, बेटी में अंतर जरूर करें!

मां-बाप का बच्चों से रिश्ता... बेटा और बेटी से रिश्ता...। जहां तक बच्चों के साथ रिश्तों का सवाल है तो मैं बेटा और बेटी को अलग-अलग नजरिए से देखने का समर्थक हूं। मेरा विश्वास कतई यह नहीं है कि बेटा और बेटी एकसमान हैं और उन्हें एक नजर से ही देखा जाना चाहिए। आप एक जैसा व्यवहार दोनों से नहीं कर सकते।

बेटियों के प्रति उनकी प्रकृति को देखते हुए जहां ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है वहीं बेटों के प्रति आप थोड़ा कम संवेदनशील होने की छूट ले सकते हैं। बेटे शारीरिक रूप से थोड़ा मजबूत होते हैं तो वे समाज के भौतिक थपेड़ों को ज्यादा अच्छी तरह झेल पाते हैं। वहीं मानसिक रूप से बेटों से थोड़ा ज्यादा मजबूत होने की वजह से बेटियां उसी समाज की संवेदनाओं को ज्यादा अच्छी तरह से समझ पाती हैं। बेटों की सूची में जहां 'तन' पहले आता है वहीं बेटियां 'मन' को प्राथमिकता देती हैं। और यही चीज उन्हें एक दूसरे अलग करती है। इसीलिए दोनों के साथ किया जाने वाला व्यवहार भी बिल्कुल अलग होना चाहिए।

एक अभिभावक होने के नाते जहां बेटों के लिए यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि उनका 'तन' न टूटे वहीं बेटियों के लिए भी यह सुनिश्चित किया जाना बहुत जरूरी है कि उनका 'मन' न टूटे।

खैर, बाप-बेटी के रिश्तों में मौजूद संवेदनाओं को व्यक्त करते हुए न जाने कहां से मनीष मित्तल ने यह कविता भेजी है। यहां बेटे गायब हैं। उनके लिए कविता शायद अगली बार। इस बार यही पढ़ लीजिए... शुभकामनाएं...:)
--धर्मेंद्र कुमार
बेटी पिता से...

मुझे इतना प्यार न दो बाबा...

कल जाने मुझे नसीब न हो...

ये जो माथा चूमा करते हो...

कल इस पर शिकन अजीब न हो...

मैं जब भी रोती हूं बाबा...

तुम आंसू पोंछा करते हो...

मुझे इतनी दूर न छोड़ आना...

मैं रोऊं और तुम करीब न हो...

मेरे नाज उठाते हो बाबा...

मेरे लाड़ उठाते हो बाबा...

मेरी छोटी-छोटी ख्वाहिश पर जान लुटाते हो बाबा...

कल ऐसा न हो इस नगरी में...

मैं तन्हा तुमको याद करूं...

ऐ अल्लाह!मेरे बाबा सा कोई प्यार जताने वाला हो...


पिता बेटी से...

हर दम ऐसा कब होता है...

जो सोच रही हो तुम लाडो...

वो सब एक माया है...

कोई बाप अपनी बेटी को...

कब जाने से रोक पाया है...

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